झाबुआ

लघु कथा
अलाव
बरसती सर्द रात, सांय सांय करते विरान जंगल, ऊंची ऊची हाथी देह सी पहाड़ियां इन्हीं के आस पास बसी झोपड़ियों में निवास करते सहज सरल भोले भाले आदिवासी। बीस पच्चीस झुगी झोपड़ियों का यह गांव रोशन नगर बस्ती कहलाती हैं। वैसे रोशनी के नाम से इन भोले भाले आदिवासियों ने सिर्फ़ चांद, सूरज की रोशनी ही देखी है। पता नहीं क्या सोच कर वर्षो से अंधेरे के श्राप झेल रहे इस गांव का नाम किसी ने रोशन बस्ती रख दिया था
बरसती सर्द रातों में कुछ खेतों में दिखाई देती हैं रौशनी। वह रोशनी जिसे जला कर करते हैं डरी रात खेतों की रखवाली। वह अलाव अर्थात आग उन्हे रोशनी भी देता और ठंड से लड़ने का साहस भी। पर आज कड़कड़ाती ठंड से बचने के लिए मंगलिया ने अलाव जलाया और बैठ गया, उसके समीप जिस्म गरमाने। दिन भर के श्रम और मेहनत के बाद रात भर फिर जागना बहुत मुश्किल होता है। फिर भी मंगलियां बीड़ी जलाकर कुछ धुआं उड़ाते जैसे तैसे नींद से लड़ रहा था। आख़िर जब कुछ ज्यादा ही थकान महसूस हुई तो समीप लगी खटिया पर कुछ देर सुस्ताने लेट गया। पता नहीं कब नींद लग गई। इधर जोर की तूफानी हवा चली और अलाव की आग तितर, बितर हो उड़ती हुई मंगलियाँ की झोपड़ी में प्रवेश कर गयी । बस फिर क्या था देखते ही देखते झोपड़ी भभक उठी, जिसे देख मंगलिया के बीबी और बच्चे चीखने, चिल्लाने लगे। इस शोर ने मंगलिया की नींद में खखल दिया। वह उठा और आंखे मसलता उस तरफ़ दिखने लगा, जिधर से शोर आ रहा था
उसकी आंखे फटी सी देखती रह गई। उसका घर जल रहा था। बच्चे बाहर खड़े जोर जोर से चिल्ला रहे थे। मंगलिया पागलों की तरह चीखता और चिल्लाता दौड़ा। पर लकड़ी कितना दम भरती, सब कुछ महाअलाव में जल कर भस्म हो गया था। वह बुत सा खड़ा देखता रहा। धधकती ज्वाला, जलती झोपड़ी , अनाज, खटिया, चारपाई , घास मिट्टी के बर्तन सब कुछ जो राख हो चूका था

डॉ रामशंकर चंचल
झाबुआ मध्य प्रदेश

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