झाबुआ

पत्नियां तुलसी नही होती “

हा ये सच है,पूजती हुई तुलसी
पर वो ,,पत्नियां, तुलसी नही होती!
नही होती वो ,प्रभु मे लीन ,
न वो दे सकती है,कोई श्राप!
बस देती है बद्दुऐ ,
क्योकि उनमे जो बोया गया है”
यू ही सतीत्व का अंकुर !
जिससे न तो वो बन पाती है!
पतिव्रता ,न ही बन पाती है पतिता!
मांगती है ,वरदान सुख समृद्धि का”
पर किसके लिऐ,
उस पुरूष के लिऐ, और स्वयंम के स्वार्थ मे
जो जाने”कितनो”
को कर देता है,झूठे प्रेम मे अपवित्र “”!
पूजती है तुलसी,पर नही बनना चाहती तुलसी”!
क्योकि सब मे नही होता ,तुलसी की तरह प्रेम”
आसान नही तुलसी बनना”
अपने आराध्य को श्रापित करना”!
फिर खुद उसी,दग्ध हृदय मे भस्म होना!
अक्सर पुरूष ,अपनी अर्धांगिनी को देते”
है ,तुलसी का दर्जा””!
पत्नी का अपमान इससे ज्यादा क्या!
बिना सोचे समझे,यू ही पावन तुलसी बना देना”
असहनीय हो जाऐगा ,जिस दिन,
तुलसी हो गयी,अर्धांगिनी “!
वही पुरूष हो जाऐगा,दानव”
जो देता है तुलसी की
पावनता को अर्धांगिनी मे””
समाहित कर भोगना”!
कटु किन्तु सत्य “”
क्या अब भी बनना चाहेगी”
पुरूष की अर्धांगिनी तुलसी!
समाज की नारी ,तुलसी”!
नारी उतनी ही योग्य समझी गयी!
जितना उसने खुद को परोसा ,!
तय किया खुद का पतन”
और तिलतिल जलने का सघर्ष!
झूठे छलावे से अच्छा है!
तुलसी ही हो ,जाना!
पूजने से अच्छा”
खुद मे पूजित हो जाना!
पर यू ही नही “
जब सच मे हृदय पावन हो”
तभी ,स्वंयम को समार्पित कर जाना!

रीमा महेंद्र ठाकुर

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