
“बादल का आँचल ओढ़ा”
इस गगन के खुले बदन पर
बादल का आँचल ओढ़ा दो
भरे मन के,गीले नयन में
थोड़ा-सा काजल लगवा दो
बादल का आँचल ओढ़ा दो
इस धरा पर प्रकृति ने दिये
अनंत अमूल्य उपहार
पेड़ों ने दी प्राण वायु
नभ बरसाता जल अपार
वीरान हो रहे इनके वैभव को
फिर से वापस लौटा दो
बादल का आँचल ओढ़ा दो
देवलोक से भी अनुपम
सजे हुए हैं वन-उपवन
सागर की विराटता यहीं पर
यहीं क्षितिज का आकर्षन
पल्लवित हो पुष्प हर्ष के
ऐसा सबको मौका दो
बादल का आँचल ओढ़ा दो
यशवंत भंडारी “यश “