झाबुआ

चहूँ दिशाओं में अँधकार
हो रही रोशनी की दरकार
तुम दीप बनकर आओ

मृग तृष्णाएँ छल रही हैं
आस्थाएँ सब बदल रही हैं
तुम विश्वास की आस जगाओ
तुम दीप बनकर आओ

हिम शिलाएँ पिघल रही हैं
धरती तपन से जल रही है
तुम इस प्रकृति को बचाओ
तुम दीप बनकर आओं

सुखी सरिता तरस रही है
नभ से अग्नि बरस रही है
तुम बादल बन जल बरसाओं
तुम दीप बनकर आओं यशवंत भंडारी "यश "

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