झाबुआ

“रूप नहीं रूह है यह” एक गहन और संवेदनशील काव्य-संग्रह है, जिसकी रचनाएं हृदय को छू लेने वाली हैं। इस पुस्तक के लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामशंकर चंचल जी, ने अपनी कविताओं के माध्यम से भावनाओं के विभिन्न पहलुओं को सजीव किया है। उनकी लेखनी सरल होने के बावजूद गहरी और आत्मिक अनुभूतियों से भरी हुई है।
पुस्तक में शामिल कविताएं जैसे कि “चलो न कुछ दूर” और “जिन्दगी, जिन्दगी से करती रही सवाल” मानवीय संबंधों और जीवन के गहरे सवालों पर विचार करती हैं। “तो तुमने पलके झुका ली” में व्यक्ति के भीतर की असहायता और समर्पण को उकेरा गया है, जो पाठक के मन को छू जाता है।

डॉ. चंचल की कविता “अहसास तुम्हारा” और “वो कल की शाम थी” में अतीत और वर्तमान के भावनात्मक संघर्ष को महसूस किया जा सकता है। इन कविताओं में बंधे रिश्ते और बिछोह की पीड़ा को बेहतरीन ढंग से व्यक्त किया गया है।
पुस्तक की कविता “समय और मैं” जीवन के संघर्ष और समय के साथ चलने की कठिनाईयों पर गहन चिंतन प्रस्तुत करती है, जबकि “तुम बोलो, मैं सुनूँ” में संवाद की अहमियत पर जोर दिया गया है।
डॉ. चंचल जी की कविता “कर दूं तुम्हारे नाम” प्रेम और समर्पण का सुंदर चित्रण करती है, और “जी भर रुलाया” में बिछोह का दर्द और आँसुओं का महत्व बेहद संवेदनशील ढंग से व्यक्त किया गया है।
पुस्तक की कुछ अन्य कविताएं जैसे “अहसासों के सहारे जीती जिन्दगी” और “चलो न पहाड़ी के पीछे छिप जाएँ” में प्रेम, जीवन और अहसासों का अद्भुत मेल है। यह कविताएं पाठकों को जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों से रूबरू कराती हैं।

डॉ. रामशंकर चंचल जी की यह काव्य-संग्रह उनकी गहन अनुभूतियों, संवेदनाओं और जीवन के प्रति उनकी दार्शनिक दृष्टिकोण का परिचायक है। उनकी लेखनी में जहाँ एक ओर भावनाओं की कोमलता है, वहीं दूसरी ओर जीवन की सच्चाईयों का साक्षात्कार भी है। “रूप नहीं रूह है यह” एक ऐसी पुस्तक है जो पाठकों को आत्म-चिंतन करने के लिए प्रेरित करती है और जीवन के विभिन्न रंगों से परिचित कराती है।

  • सागर यादव ‘जख्मी’

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