झाबुआ

आचार्य श्रीमद् विजय दिव्यानंद सूरिश्वरजी महाराजा )

(प्रवचन सार —— झाबुआ दिनांक – 30/8/24 / परम पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय दिव्यानंद सूरिश्वरजी महाराजा )
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@-(१) “सम्यक् दर्शन “की प्राप्ति के अभाव में धर्म की शुरुआत ही नहीं हो सकती हे यह धर्म की शुरुआत का एकड़ा (१)हे इसके बिना सब शून्य (०)और कितनी भी शून्य (००००००)लगालो परिणाम शून्य॥(।                                                      (२) “सम्यक् दर्शन “की प्राप्ति हुई की नहीं इसका थर्मामीटर एक मात्र हे वो यह की परमात्मा के वचनो में कितनी अटूट श्रद्धा हे ।श्रद्धावान सम्यक् दृष्टि जीव से यदि कोई पाप कार्य हो भी गया होगा तो परिणाम स्वरूप कर्म बंध अल्प समय के लिए ही होगा॥।                                                       (३) परमात्मा के वचनों में श्रद्धा यदि होगी तो संसार से अरुचि स्वतः होने लगेगी और दूसरे जीवों में पीड़ा देखकर करुणा भाव भी आएगा ।आस्तिक्य —— अनुकंपा ——-संसार से बेचैनी। (४) भूल न करे वह भगवान किंतु भूल का स्वीकार कर पश्चाताप करे वो भी भगवान ॥                                           (५) परमात्मा शासन और साधु शासन दोनों एक ही हे इसलिए शुद्ध चारित्र जीवन या दीक्षा जीवन अनंत भव के पापों से मुक्ति दिलाता हे ।इसलिए पाप कर्मों पर प्रहार करने हेतु साधु -साध्वी भगवंतों की शरण में रहना ही उचित हे                                 (६) परमात्मा भक्ति और क्रियाए भावना “और “ध्यान “के साथ की जानी चाहिए और इसमें भी “विशुद्ध भावना “ज्यादा महत्वपूर्ण हे इसके अभाव में ये सभी क्रियाएँ केवल पुण्य बंध का कारण बनेगी और कुछ भी नहीं ।                                   (७)पर्युषण पर्व 8 दिवस तक परिपूर्ण आराधना करने का अवसर हे । (समाप्त)

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