
लघुकथा
मोहन साइकल वाला
आइये, एक सत्य कथा से परिचय करता हूँ, ये है मोहन, जिसे साइकल वाला बोला जाता है धन्धा साइकल का करता हूँ, पिता की दी गई अनमोल धरोहर हैं, यह साबित किया है इस मोहन साइकल वाले ने, मेरी कालोनी, बड़े लोगों की कालोनी के नाम से जानी जाती हैं, बड़े लोग कैसे होते है, लिखना नहीं चाहता, नाराज हो जायेंगे, वैसे ही, सभी मेरा नाम से पहले से खफा है, फिर, मोहन साइकल वाले की, कर्म शील जीवन की बात कर रहा हूँ, पड़ ली तो वैसे ही नाराज हो जायेंगे, हर व्यक्ति की इच्छा रहती हैं उस पर कुछ लिखा जाय, पर कुछ हो तो न, खैर, मोहन, ने, अपने पिता की कठोर परिश्रम को, लगन को, बहुत करीब से देखा ही नहीं, दिल और दिमाग में बसाया और आज उसी तरह लगे हुए सभी को हाथ जोड़ कर, उस मुकाम पर जा पहुंचा है कि उसने कितनों को खामोश कर दिया, उसकी भव्य इमारत को देख, आलीशान, दुकान को देख, चुप है, कभी कभी, कुछ लोग, चलते चलते, मोहन सेठ, अच्छा काम किया, बोल जाते वह, मुस्करा देता, खूब बोलने वाला मोहन, यहाँ कितना, समझदार होता है, क्यो कि, उससे पता है कैसे यहाँ तक आया है, और पिता के सारे कष्ट दूर करने का अब साहस जुटा पाया है , पिता नही रहे पर, उस के दिल और दिमाग में कल भी थे आज भी, सब कुछ उन्हें सौंप खुश होते जी रहा है, मोहन उर्फ़ अब मोहनसेठ
हवेली बन जाने पर, मेरे पास आया था, बहुत प्यार करता है मुझे, मै भी, उसे करता हूँ, हर कर्म शील, आम आदमी जब बड़ा बन जाता है तो न जाने क्यों मेरा दिल बाग बाग हो जाता है, ये व्यक्ति कितने भी बड़े हो,जाय हर दृष्टि से कभी भी उन मै आप अहम
नहीं पायेंगे, जानते है बहुत बहुत ही परिश्रम से मिला है
प्रणाम करता हूँ, मोहन सेठ को, जिसने मेरी चाहत को भी पुरा किया, है प्रभु सब को सब दे, जो सदा ही मानवता लिए रात दिन तेरे सहारे जीते हैं,
डॉ रामशंकर चंचल
झाबुआ मध्य प्रदेश