झाबुआ

उलझनों की जो किताब है
उलझे हुए सारे सवालों का
शायद उसमें ही जवाब है!!
कितने ही लगे प्रश्न चिन्ह
मेरे तौर तरीकों पर
बदलना मेरी फितरत नही
यहीं मेरा मिजाज है
शायद उसमें ही जबाब है!!
आलम अपना सदा रहा
अदब के साथ जीने का.
अपने करम से लिखता हुँ
जो मेरा हिसाब है
शायद उसमें ही जबाब है!!
वादे पर क़ायम रहा मै
जिंदगी की हर राह पर
पत्थर की लकीर बने
मेरे जो अल्फाज़ है
शायद उसमें ही जबाब है!!
अभी तो पहला पड़ाव है
अपनों की पहिचान का
सियासत करने वालों के भी
अब अलग अलग अंदाज है
शायद उसमें ही जबाब है!!
यशवंत भंडारी “यश “

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