जैसे दीपावली रोज़ आती हैं
उसे नहीं जरूरत
तुम्हारीं तरह
दीप जला
रोशनी कर
खुशियों और उमंगों को
समेटने की
उसके आंगन में
बँसो की बनी झोपड़ी में
रोज जलता है
एक दीप, सालों से
उसकी चोखट पर
वह नहीं जानता
खुशियों, उमंगों को
वह रहता है
सदा मस्त, उन्मुक्त
अपनी ही मस्ती में मस्त
खेतों में श्रम करते
आँगन में बच्चों संग
किलकारी मारते
पेड़ो पर चड़
बांसुरी बजाते
तो कभी पहाड़ों पर
दोड़ते
गुनगुनाते जैसे
दीपावली रोज़
उसके आँगन में
आती हैं
खुशियों को
समेट
हँसती, मुस्काती
गुनगुनाती, इतरती
डॉ रामशंकर चंचल
झाबुआ मध्य प्रदेश
