
बातों का रिश्ता
तुम्हारा, मेरा भी
अजीब, रिश्ता था
बातों का, तुम, तुम्हारे
घर की बात कर देती
मै मेरे घर की
चोकने वाली बात यह कि
न मेरा घर, मेरा रहा
न तुम्हारा घर है
तुम्हारा घर तो वह जहाँ
तुम जाती, पर व्यर्थ का
हम दोनों घर समझ
उलझे है, रात दिन
उनकी परवाह मै
हमें, उन घरों से कोई
सुख और सुकूंन हो
ऐसा लगता नहीं
हाँ, हमारी चिंता
उस घर के सुख चैन और आनन्द की
यही तो है दूसरों के लिए
जीना, दूसरे कितने
अपने है कहना, उचित नहीं
तुम जानों, या मै
हमारी रहना, उनके लिए
बहुत बहुत ही सार्थक है
यह तो दुनिया भी
देख, सोच रही हैं
परम् सत्य
खैर, सोचता हूँ
ईश्वर कैसे, कैसे
इंसान बनाता है
कोई अपने ही सुख और सुकूंन के लिए
पूरी जिंदगी, खत्म कर देता
कुछ लोग, दूसरे के
सुख और सुकूंन के लिए
अपनी सारी दुनिया
खुशी को, सदा के लिए
खूंटी पर टाँग के
जीते हैं और
कभी कभी
देख लेते है
ख्यालों में
उस खूँटी पर एक
नज़र डाल
चाहते तो
यह खुशियाँ
हमारे पास भी होती
बस चाहते तो
इतना सोच
हम फिर उलझ जाते है
उन अपनों की
खुशी के लिए
अपने कितने अपने
केवल ईश्वर जानता है
डॉ रामशंकर चंचल
झाबुआ, मध्य प्रदेश